ये बात है एक बार की
शायद इतवार की।
लोग छुट्टी के दिन सुस्ता रहे थे।
कुछ घूमने गए और
कुछ जा रहे थे।
यूँ कहें तो कोई मुस्तैद न था जैसे,
बाहर से देखो तो शहर अकेला था जैसे।
शायद यही देख बादलों ने उस दिन,
शहर को घेरा था।
इस ओर से, या उस छोर से
आया बादलों का रेला था।
संग पुरवाई भी थी।
उसकी आवाज़ में कुछ रुस्वाई सी थी।
उसी के वेग ने छेड़ा जरा सा
कस्बे की पवन चक्की को।
दिखने में सदियों पुरानी सी
जुड़ी थी उससे विकास की ,कहानी सी।
घर के बुजुर्ग की तरह ही है उसकी भी स्थिति
काम कोई नहीं, मगर हर पते में लैंडमार्क वही।
घर के बुजुर्गो की तरह
ये भी जैसे डटी हो एक प्रहरी की भाँति।
बस उसे देख कर ही, अपना रुख बदली आँधी।
बादल भी आये, तो गिरोह बना कर।
मगर देख कर तटस्थ इसे,
रुख बदल चले किसी और शहर।
नवनीत गोस्वामी 31 मई 2023