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शनिवार, जनवरी 16, 2021

पतझर

यह कविता लिखी गयी थी 16 जनवरी 2021 (शनिवार), और उसी दिन साहित्य_संगम_संस्थान_गुजरात_इकाई के मंच पर प्रस्तुत की गयी। 20 जनवरी 2021 को इस रचना की वजह से मुझे "श्रेष्ठ रचनाकार" से सम्मानित किया गया। मुझे प्रसन्नता है इस बात की कि यह मेरी तीसरी कविता है जिसे इतना सम्मान और प्यार इस मंच से मिला।  धन्यवाद करती हूँ मंच का।  आप से इसी तरह प्रोत्साहन मिलता रहे।  धन्यवाद। https://www.facebook.com/groups/820559168735062/permalink/858678868256425/

 

वृक्ष, धरा सा रैन बसेरा,

इस से समझें, जीवन का फेरा। 

पंछी आते , कलरव करते,

नयी कोंपलों संग डाले डेरा। 


हंसी ख़ुशी में साथ निभाते,

चहुँ और से सुख है मनाते। 

लेकिन ऐसा  कब तक चलता है ?

जीवन क्षण भंगुर होता है। 


रंग बदलती या पीली पड़ती,

"जाती हूँ " यह पाती कहती। 

पत्ता इक -इक छूटा जाए ,

हमको नियति के नियम समझाए। 


माघ फाल्गुन का महीना आये,

रंग जीवन का बदला जाए। 

"जर्जर पत्ते" जैसे कि जीवन, 

पतझर जैसे मोक्ष का सीजन।  


जो आया है , करेगा कूच,

"शुभ करम करूँ" बस तू ये सोच। 

जानूं वेदना सही नहीं जाए 

ठूंठ सा वृक्ष, ये कह ना पाए। 


पत झर-झर कर लहराते जाए,

अपनी ही मौज में, संग पवन के,

जैसे पिया मिलन को जाए।

इठलाते - बलखाते संतोष से ,  

धरा की गोद में जा सो जाए। 


यह जीवन का अंत नहीं है ,

इक विरह को दूजा संतोष को पाए। 


विरहित वृक्ष की शाखों पर 

नए जीवन का होगा आगमन। 

नन्हीं कोंपलें आएँगी जब,

विरह वेदना तब होगी कम। 


एक बरस के सारे महीने 

विभिन्न रंगों और खुशिओं से भरे। 

अपने मूल को भूल ना जाएँ 

ये पतझर ही हम सब से कहे। 


जीवन में पाने का भाव, 

वो जाने जो खोता है। 

बिन पतझर, बसंत को समझे,

ऐसा कभी न होता है। 

  

. . . .  नवनीत गोस्वामी 

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