रचना : कवि श्री शैलेश लोढा
कल जब उठ कर काम पर जा रहा था, अचानक लगा कोई रोक लेगा मुझे,
और कहेगा, खड़े खड़े दूध मत पी, हज़म नहीं होगा
दो घड़ी साँस तो ले ले,
इतनी ठण्ड, कोट भूल गया, इसे भी अपने पास ले ले
मन में सोचा माँ रसोई से बोली होंगी , जिसके हाथ में सना आटा होगा,
पलट के देखा तो क्या मालूम था कि वहाँ सिर्फ सन्नाटा होगा।
अरे अब हवाएँ ही तो बात करती है मुझसे,
मुझे लगता है जब जाऊंगा किसी खास काम पर
तो कोई कहेगा दही शक्कर खा ले शगुन होता है,
कोई कहेगा गुड़ खा ले बेटा अच्छा शगुन होता है
पर मन इसी बात के लिए तो रोता है कि सब कुछ है माँ , सब कुछ।
जिस आज़ादी के लिए मैं तुमसे सारी उम्र लड़ता रहा
वह सारी आजादी मेरे पास है
फिर भी ना जाने क्यूं दिल की हर धड़कन उदास है
कहता था न तुझसे, कि करूंगा वह ,जो मेरे जी में आएगा।
आज मैं वही सब करता हूँ जो मेरे जी में आता है।
बात ये नहीं हैं कि मुझे कोई रोकने वाला नहीं हैं,
बात इतनी सी है कि सुबह देर से उठु ना ,
तो कोई टोकने वाला नहीं हैं।।
रात को अगर लेट लौटूं तो कौन रोकेगा भला
दोस्तों के साथ घूमने पर उलहाने कौन देगा ?
मेरे वो तमाम झूठे बहाने कौन देगा ?
कौन कहेगा कि इस उम्र में क्यों परेशान करता है ?
हाय राम ! ये लड़का क्यूं नहीं सुधरता है ?
पैसे कहाँ खर्च हो जाते हैं तेरे ? क्यों नहीं बताता है ?
सारा सारा दिन मुझे सताता है, रात को देर से आता है
खाना गरम करने को जागती रहूं,
खाना खिलाने को तेरे पीछे पीछे भागती रहूं, बहाती रहूं आँसू तेरे लिए
कभी कुछ सोचा है मेरे लिए ?
खैर मेरा तो क्या होना है और क्या हुआ है
तू खुश रहना , यही दुआ है
और आज तमाम खुशियाँ ही खुशियाँ है, ग़म यह नहीं कि कोई खुशियाँ बाँटने वाला होता
पर कोई तो होता , जो ग़लतियों पे डाँटने वाला होता
तू होती ना, तो हाथ रखती सर पर, हल्के से बाम लगाती,
आवाज़े दे दे कर, सुबह उठाती।
दिवाली पर टीका लगाकर रुपये देती
और कहती बड़ो के पाँव छूना, आशीर्वाद मिलेगा,
अगला कपड़ा, अगली दिवाली को सिलेगा।
बहन को सताया , तो दो चांटे मारती,
बीमार पड़ता तो रो रोकर नज़रे उतारती।
परीक्षा से आते ही खाना खिलाती,
पापा की डांट का डर दिखाती।
इसे नौकरी मिल जाए , तरक़्क़ी करे
दुआओं में हाथ उठाती,
और तरक़्क़ी के लिए घर छोड़ देगा,
यह सुनकर दरवाजे के पीछे चुपके चुपके आँसू बहाती।
सब कुछ आज माँ ! सब कुछ !
आज तरक्की की हर रेखा तेरे बेटे को छू कर जाती है
पर माँ ! हमें तेरी बहुत याद आती है।
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शैलेश लोढा जी की यह कविता माँ और बेटे के रिश्ते की बारीकियां बखूबी बयां करती है। बच्चों की बेपरवाहियाँ और माँ का बच्चों की परवाह करना न छोड़ना, बहुत ही अच्छे से शब्दों में व्यक्त किया है। जो भी इस कविता को सुनता है, अंत तक आते आते उसकी आँखे नम हो ही जाती हैं। मेरा तो क्या ही कहूं ! कविता की शुरुआत से अंत तक मेरे तो अविरल आंसू बहे जा रहे थे। नमन है सब माताओं को ! और नमन श्री शैलेश लोढा जी को !