सिख्या - मेरी रचनाएँ # 23
सिख्या
आज की कविता पंजाबी में है , गुरमुखी लिखनी नहीं आती ,इसलिए देवनागरी में ही सही। भावाभिव्यक्ति की ही तो बात है। कोई भी भाषा हो। उम्मीद है आप तक जरूर पहुँचेगी। आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर इसे सुन भी सकते है -
https://youtube.com/clip/UgkxTXTyHna-bYl-UIDbHPocLfZ4CIg7QzC9
कह गए वडे सयाने सब नूं ,
कुझ रख्या नहीं तक़रारा व्हिच !
अंत च जा मिल्दा दरया नूं ,
रुक्या जो नीर पहाड़ां व्हिच !!
झुक्या दरख़्त, देन लयी झुक्दा,
मजबूरी नहीं उसदा झुकना !
पेड़ खजूर दा कबीरे नु दसदा ए ,
जो तणे रहे ,उस पाया कुझ ना !!
आ तन मिट्टी ! आ धन मिट्टी !
जाके मिट्टी व्हिच मिल जाना !
ना रख वहम दिलां व्हिच बंदया,
कि तेरे बिन सब रुक जाना !!
ना रुक्या , ना रुके किसे लई,
"समय" पानी दा रेला है !
जो नाल बहे, ओ लगे किनारे,
"भारी" "अहंकारी" अकेला है !
सोच - समझ के करीं ओ बंदया
करम होवण या होवे व्यवहार।
असां जो कीत्ता ! असां ही खटना,
आपणे कल दे असां खुद जिम्मेवार !
. . . नवनीत
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