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गुरुवार, फ़रवरी 15, 2024

तू अपनी खूबियां ढूँढ

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Navneet Goswamy
तू अपनी खूबियां ढूँढ, 

खामियाँ निकालने के लिए लोग है ना। 

अगर रखना है कदम तो आगे रख,

पीछे खींचने के लिए लोग है ना। 

सपने देखने है तो ऊँचा देख,

नीचा दिखाने के लिए लोग है ना। 

तू अपने अंदर जूनून की चिंगारी भड़का,

जलने के लिए लोग है ना। 

प्यार करना है तो खुद से कर,

नफरत करने के लिए लोग है ना। 

तू अपनी एक अलग पहचान बना,

भीड़ में चलने ले लिए लोग है ना। 

तू कुछ कर के दिखा दुनिया को,

तालियाँ बजाने के लिए लोग है ना। 


ये बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ हैं। कमाल की बात ये है कि ये हिंदी की कविता है, लेकिन मैंने पहली बार इसे सुना पाकिस्तान की अदाकारा रीमा खान की बदौलत।  पाकिस्तान का एक टॉक शो है , जिसमें रीमा खान जी बतौर  guest आयीं थी और वहाँ उस show में एक सवाल के जवाब में उन्होंने ये कविता सुनाई थी। 

जो लोग समाज के कुछ मुट्ठी भर लोगों के कहने भर से हताश हो कर अपनी कोशिशों पर फुल स्टॉप लगा देते है,  उनके लिए ये कविता, उनकी कोशिशों की रुकी गाड़ी को धक्का लगाने का काम कर सकती है।  

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                                                             नवनीत गोस्वामी 

                                                                

मंगलवार, जनवरी 09, 2024

शनिवार, सितंबर 16, 2023

माँ

रचना : कवि श्री शैलेश लोढा

कल जब उठ कर काम पर जा रहा था, अचानक लगा कोई रोक लेगा मुझे, 

और कहेगा, खड़े खड़े दूध मत पी, हज़म नहीं होगा 

दो घड़ी साँस तो ले ले, 

इतनी ठण्ड, कोट भूल गया, इसे भी अपने पास ले ले 

मन में सोचा माँ रसोई से बोली होंगी , जिसके हाथ में सना आटा होगा,

पलट के देखा तो क्या मालूम था कि वहाँ सिर्फ सन्नाटा होगा। 

अरे अब हवाएँ ही तो बात करती है मुझसे, 

मुझे लगता है जब जाऊंगा किसी खास काम पर

तो कोई कहेगा दही शक्कर खा ले शगुन होता है,

कोई कहेगा गुड़ खा ले बेटा अच्छा शगुन होता है 

पर मन इसी बात के लिए तो रोता है कि सब कुछ है माँ , सब कुछ। 

जिस आज़ादी के लिए मैं तुमसे सारी उम्र लड़ता रहा 

वह सारी आजादी मेरे पास है 

फिर भी ना जाने क्यूं दिल की हर धड़कन उदास है 

कहता था न तुझसे, कि करूंगा वह ,जो मेरे जी में आएगा। 

आज मैं वही सब करता हूँ जो मेरे जी में आता है। 

बात ये नहीं हैं कि मुझे कोई रोकने वाला नहीं हैं,

बात इतनी सी है कि सुबह देर से उठु ना ,

तो कोई टोकने वाला नहीं हैं।।  

रात को अगर लेट लौटूं तो कौन रोकेगा भला 

दोस्तों के साथ घूमने पर उलहाने कौन देगा ?

मेरे वो तमाम झूठे बहाने कौन देगा ?

कौन कहेगा कि इस उम्र में क्यों परेशान करता है ?

हाय राम ! ये लड़का क्यूं नहीं सुधरता है ?

पैसे कहाँ खर्च हो जाते हैं तेरे ? क्यों नहीं बताता है ?

सारा सारा दिन मुझे सताता है, रात को देर से आता है 

खाना गरम करने को जागती रहूं,

खाना खिलाने को तेरे पीछे पीछे भागती रहूं, बहाती रहूं आँसू तेरे लिए 

कभी कुछ सोचा है मेरे लिए ?

खैर मेरा तो क्या होना है और क्या हुआ है 

तू खुश रहना , यही दुआ है 

और आज तमाम खुशियाँ ही खुशियाँ है, ग़म यह नहीं कि कोई खुशियाँ बाँटने वाला होता 

पर कोई तो होता , जो ग़लतियों पे डाँटने वाला होता  

तू होती ना, तो हाथ रखती सर पर, हल्के से बाम लगाती,

आवाज़े दे दे कर, सुबह उठाती।

दिवाली पर टीका लगाकर रुपये देती 

और कहती बड़ो के पाँव छूना, आशीर्वाद मिलेगा,

अगला कपड़ा, अगली दिवाली को सिलेगा। 

बहन को सताया , तो दो चांटे मारती,

बीमार पड़ता तो रो रोकर नज़रे उतारती। 

परीक्षा से आते ही खाना  खिलाती,

पापा की डांट का डर दिखाती।

इसे नौकरी मिल जाए , तरक़्क़ी करे 

दुआओं में हाथ उठाती, 

और तरक़्क़ी के लिए घर छोड़ देगा, 

यह सुनकर दरवाजे के पीछे चुपके चुपके आँसू बहाती। 

सब कुछ आज माँ  ! सब कुछ !

आज तरक्की की हर रेखा तेरे बेटे को छू कर जाती है 

पर माँ ! हमें तेरी बहुत याद आती है। 

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शैलेश लोढा जी की यह कविता माँ और बेटे के रिश्ते की बारीकियां बखूबी बयां करती है।  बच्चों की बेपरवाहियाँ और माँ का बच्चों की परवाह करना न छोड़ना, बहुत ही अच्छे से शब्दों में व्यक्त किया है। जो भी इस कविता को सुनता है, अंत तक आते आते उसकी आँखे नम हो ही जाती हैं।  मेरा तो क्या ही कहूं ! कविता की शुरुआत से अंत तक मेरे तो अविरल आंसू बहे जा रहे थे। नमन है सब माताओं को ! और नमन श्री शैलेश लोढा जी को !

शनिवार, अगस्त 26, 2023

रामधारी सिंह दिनकर रश्मिरथी - कृष्ण की चेतावनी

 

वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,

पांडव का संदेशा लाये।
‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशीष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।

उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।

‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।

शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है।

‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।

‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।

‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?

‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।

‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’

थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,
निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!

रामधारी सिंह दिनकर
रश्मिरथी - कृष्ण की चेतावनी  

मंगलवार, मई 21, 2019



तेरे दर पे आने से पहले ,बड़ा कमज़ोर होता हूँ  . . !
मगर तेरी दहलीज़ को छूते ही , मै  कुछ और होता हूँ।।      



सोमवार, अगस्त 01, 2011

बेटियां . . Poem By Shailesh Loadha

ये कविता हास्य कवि श्री शैलेश लोढा जी द्वारा रचित है ! गए दिनों मैंने इसे "Comedy ka  Mahamuqabala " में सुना और मुझे बहुत अच्छी लगी !

((*_*))   बेटी  ((*_*))

क्या लिखूं उसे ?
वो परियों का रूप होती है ?
या कड़कती ठंड में सुहानी धूप होती है ?

क्या लिखूं उसे ?
वो होती है चिड़ियों की चहचाहट की तरह !
या वो निश्छल खिलखिलाहट की तरह ?
वो होती है उदासी में हर मर्ज़ की दवा की तरह ,
या होती है उमस में शीतल हवा की तरह ?

क्या लिखूं उसे . . . ?
वो आँगन  में फैला उजाला है '
या मेरे गुस्से पे लगा ताला  है ?
वो पहाड़ पे सूरज की किरण है '
वो ज़िन्दगी सही जीने का आचरण है !
है वो ताक़त जो छोटे से घर को महल कर दे;
या वो काफिया जो किसी ग़ज़ल को मुक़म्मल कर दे ?

क्या लिखू  उसे. . . ?
वो अक्षर, जो न हो तो वर्णमाला अधूरी है;
या वो जो सबसे ज्यादा ज़रूरी है :
ये नहीं कहूँगा कि वो सांस सांस होती है ;
क्यूंकि बेटिया तो सिर्फ एहसास होती है !

उसकी आँखे ना मुझसे गुडिया मांगती है ना खिलौना ;
"कब आओगे " बस इतना सा सवाल है मुझसे पूछना !
"जल्दी आऊंगा"  अपनी मजबूरी को छिपाते हुए देता हूँ जवाब ;
"Date बताओ " time बताओ"
अपनी उँगलियों पे करती है हिसाब !

जब नहीं दे पाता हूँ उसे जवाब ;
तो अपने चेहरे पे ढक लेती है किताब !

ऑस्ट्रेलिया में छुट्टिया ; 5 स्टार में खाना या
नए नए i -pod  नहीं मांगती है !
ना ढेर सारे पैसे अपने पिगी बैंक में उडेलना चाहती है
बस वो मेरे साथ कुछ देर खेलना चाहती है
बस वो मेरे साथ कुछ देर खेलना चाहती है ! ! !

आखरी पंक्तिया :-
कि वही बेटा ! काम है ! ज़रूरी है ;
नहीं करूँगा तो कैसे चलेगा ! मजबूरी है !
दुनियादारी से भरे जवाब उसे देने लगता हूँ !;
वो झूठा ही सही; मुझे एहसास दिलाती है , जैसे सब समझ गयी हो !
पर मुंह छुपा के रोती है ,
ज़िन्दगी ना जाने क्यूँ ऐसे उलझ जाती है ;
और हम समझते है , बेटियां सब समझ जाती है !!!!!!

     . . . . .. . . . द्वारा : - शैलेश लोढा