"माँ" भगवान् समान होती है

कहते है कि "माँ" भगवान् समान होती है।  

इस बात पर मै ज़रा मुस्कुरा देती हूँ और सोचती हूँ कि बात तो सही है। एकदम सही है।  लोग भगवान् और माँ दोनों को तभी याद करते है जब जरुरत हो या फिर खुद के साथ घटित अनहोनी के लिए जिम्मेदार ठहराना हो। 

आपको क्या लगता है ? 

आज के बच्चों को जब देखती हूँ तो लगता है उनका संवेदना से कोई  लेना देना नहीं। उलझन  ये है कि हम माता-पिता उस पीढ़ी से है जिन्होंने परिवार में अपने माता - पिता क्या बड़ों के सामने कभी ऊँची आवाज़ में बात भी नहीं की।  हाँ।  अपनी बात रखी जरूर है मगर सलीके से।  हमारे लिए सलीका भी मायने रखता है।  

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