मंजिलें
मंजिलों की तलाश में चले थे हम,
बोझिल कदम और मंद गति
अकेले निकल पड़े,
और मंजिल मेरी दूर खड़ी,
हमें ही जाना होगा उस तक,
वो तो जैसे अपनी जिद पे अड़ी।
जब निकल पड़े, ए मंजिल तेरी ओर आने को,
खूबसूरती जिंदगी की पाई हमने छोटे छोटे ठिकानों पर।
अब मेरी हर दिन की मंजिले होती है,
निकलता हूं हर रोज घर से उन्हें पाने को।
और तुम ! और तुम रास्तों को भुला गए।
अरे ! ये रास्ते ही तो हमें भा गए ।।
मंजिले मनचाही किसे मिली है आज तक,
ये रास्ते ही थे जो हमे जीना सिखा गए।।
हसीन हमसफर मिलते गए और हम
उन्हीं रास्तों पे मंजिलें कई पा गए ।
नवनीत गोस्वामी
अहमदाबाद
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- हम उम्मीद करते हैं कि यह पाठक की स्वरचित रचना है।
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