ये अभिव्यक्ति रोष की है जो भरा है एक खबर पढ़कर। हम 21 वी सदी में जीनेवाले लोग है। हमारे आज के २१वी सदी के समाज में समाजिक कुप्रथाओ का दौर तो नहीं होना चाहिए। लेकिन हम गलत है। हम गलत है जो ऐसा सोचते है कि ऐसा कभी भूतकाल में हुआ करता था आज के दौर में भला कौन करता है ऐसा ?
मेरा ऐसा मानना आज के दौर में हम पहले से कहीं ज्यादा दिखावे में / showoff करने में, विश्वास करने लगे है। इसीलिए ओहदा देखकर, कुर्सी देखकर या हैसियत देखकर भेंट देने का रिवाज़ बढ़ता जा रहा है। दहेज़ प्रथा को आज के युग में नाम कुछ भी दीजिये पर आज भी ये प्रथा हमारे २१वी सदी के समाज के कुछ हिस्सों में सांस ले रही है अभी अभी इंटरनेट पे एक खबर पढ़ी। उत्तरप्रदेश के रामपुर के मोहल्ले की खबर। अमूमन ये खबरें अख़बार के किसी कोने में अपनी लिए जगह पा जाती है और आजकल आम बात होती जा रही है , तो कोई इन्हे नेगेटिव खबरें बोलकर इनपर ध्यान भी नहीं देना चाहता। मेरा ध्यान चला गया और खबर का असर उतरा नहीं है अब तलक। जो भी भाव मष्तिष्क में उतर कर आ रहा है उसे शब्दों में ढालने का प्रयास किया है बस -
"कहते हैं बहुत है अंतर
कहते हैं बहुत है अंतर
वो कुप्रथाओँ का युग था
आज इक्कीसवी सदी. . !
अभी अभी की खबर सुनो,
साल 21 में ब्याह हुआ था,
आज सुना हुई सती. . !!
एक तो थी ब्याहता
पर दूजी तो थी नन्ही कली. . !
अपनी माँ की गोद में,
बस 3 महीने ही पली. . !!
सुन के सन्न रह गए हम ,
सुना जब आज की खबरों में . . !
ख़ून जैसे जम सा गया
तब से हमारी नब्ज़ों में. . !!
शर्मसार इंसानियत
आज फिर से खुद की नज़रों में. . !
अरे ! 3 माह की नन्ही जान ,
थी माँ के संग उन लपटों में. . !!
ये नहीं कोई और दुनिया
ये नहीं कोई और दुनिया
देश मेरा
राज्य मेरा
मेरा ही है शहर. . !
अरे ! किसी ने तो देखा होगा
किसने ढाया ये क़हर. . ?
हाँ ! अपना ही मोहल्ला है ,
भाई ! इतना भी ना हल्ला है
जो टोह ना पाए आते - जाते. . !
खबर तो है तुम्हे किसकी हांडी बीफ चढ़ा ?
किसके तवे पे परांठे ?
तो उस घर की खबर क्यूँ ना मिली ?
जहाँ सती हुई , एक नन्ही कली
निभा ना सके वो
निभा ना सके वो
जिनसे था जन्मों का नाता . . !
पर निभाया उस तिमाही ने
लिपटी थी माँ के संग जो
लपटों की रज़ाई में . . !!
और एक वो !!
अरे वो तो हमजात थी ,
ना धर्म की तलवार थी !
ब्याह में उसके सुना है
शहनाई थी , बारात थी !
फिर क्यूँ हुआ ये उसके संग ?
जब आहुतियाँ दी थी संग !!
अब वेदी थी ,
ज्वाला भी थी !
मगर आहुति वो खुद बनी
"नवनीत" सोचती रही
क्यूँ भाग्य से उसकी ठनी ?
कौन गाँव ? कौन शहर ?
कौन सदी में रहते है ?
भाई मेरे ये किस्सा हम
यहीं किसी घर का कहते है !!
ना जाना दूर !
ना जाना दूर !
बस छोड़ दो एक दो मकां ,
किसी आंच में जल रही
हमारी बहु बेटियाँ !!
सोचते है घोर कलयुग
कृष्ण सुदर्शन चलाएगा।
मगर अफ़सोस... !
मगर अफ़सोस...!
यहाँ दुर्योधनों की भीड़ है ,
कृष्ण कहाँ कहाँ जा पायेगा ?
कहती हूँ तुमसे ओ नन्ही कली
पंखुड़ी सी भले तुम कोमल बनना
पर प्रहार में ऐसा बल रखना
नज़र डाले जो कोई दानव तुम पर
खुद बन जाओ चक्र सुदर्शना !!
. . . . . . नवनीत गोस्वामी
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