भीगे तन - मन


ओ कारे कारे बदरा
अब तो अपनी छटा बिखरा,
झूम झूम बरसो ऐसे.
बरसा कभी ना हो जैसे !

बरसाओ तुम मेह मेह
हम जीवो पे स्नेह स्नेह
चारों और भये हरियाली
भीगे हर पत्ता, हर डाली !

हिल उठे वृक्षों के पत्ते,
हवा ने ली  कैसी अंगराई,
मंडराए बादल नभ में ,
मद मस्त चली ऐसी पुरवाई!

रुत बदली एक ही दिन में,
अब चहके मोर उपवन में !
कल गर्मी रुला रही थी,
गर्म हवा तन जला रही थी,
पल में बदला सारा ये नज़ारा,
नभ से गिरा पानी का फवारा !

"नवनीत" ने देखा ये आलम,
रोक सकी ना अपना मन,
चले भीगने हम तो बाहर,
अमृत बरसाए नील गगन !

बरसाओ जलद वारि बारी !
तेरी हर कनी लगे प्यारी,
शीतल करदो, जल से भरदो,
तालाब, सरिता, उपवन, क्यारी !

मन बांवरा ले हिचकोले,
तेरी बोछारों संग ऐसे डोले,
ज्यों मन्दाकिनी (गंगा ) मस्त बहे,
कूह कूह गाए वनप्रिया (कोयल) जैसे !

इतनी  प्यारी लगे मुझे,
कैसे करूँ इसका वर्णन
श्रावण  की पहली बारिश में,
भीगे तन - मन, भीगे तन - मन !

टिप्पणियाँ

  1. बरसाओ जलद वारि बारी !
    तेरी हर कनी लगे प्यारी,
    शीतल करदो, जल से भरदो,
    तालाब, सरिता, उपवन, क्यारी

    वाह वा...बारिश पर लिखी एक अप्रतिम रचना...शब्दों में प्रशंशा करना संभव नहीं...

    नीरज

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

लोकप्रिय पोस्ट