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बुधवार, सितंबर 08, 2010

Well Done Spain. . . !

FIFA world cup 2010 ; Finally Spain has done it . . !

कल रात





कल रात का था आलम कुछ ऐसा !
नैना बरसे , बादल भी बरसा !!
बात जो निकली जुबां से एक पल में !
असर दिखा उसका इक अरसा !

नहीं कटा हमसे ना उनसे !
रात का वो प्रहर चुइंगम सा !!
वही कहें , बोलें, और सुनाये !
हम सुने , जैसे कोई बुत था !!

कहतें है, सोच समझ कर बोलो !
इन्सान भी देखो, देखो लम्हा!!
जब भी सोच कर चाहा कहना !
हम कह नहीं पाए अपनी मंशा !!

सोच समझ कर तो गैरों को बोलें !
फिर फर्क रहा क्या
कौन पराया , कौन है अपना ?

. . . . . . . . . . .  . . .  नवनीत

शुक्रवार, अगस्त 06, 2010

Ek Gilahari !

कभी कभी बीते पलों को याद करतें हैं तो उस पल से जुडी सब कड़ियाँ मन के परदे पर विचरण करती दिखाई देने लगती हैं. मेरे ऑफिस जाने के रास्ते में २ - ३ कॉलेज है,जब भी वहाँ से गुजरती हू मेरे मन में मेरे कॉलेज और हॉस्टल  की तस्वीर जरूर प्रकट हो जाती है. कॉलेज और हॉस्टल एक ही premises  में थे. सबसे ज्यादा याद आता है - मेरा कमरा. जहाँ सबसे ज्यादा वक़्त बीतता था, लेकिन परीक्षा के दिनों में सबसे कम वक़्त के लिए मैं वहां दिखाई देती थी. क्योंकि मुझे एकांत में बैठ कर पढने की आदत थी, और वो थी- कॉलेज कैम्पस में दूर बड़े से मैदान में लगे पेड़ों के नीचे, ठंडी छाँव में. और दूसरी जगह थी मेरा क्लासरूम, क्लासेस ख़तम होने के बाद मैं फिर से अपनी क्लास में जाती थी, और प्रोफेसर की तरह लेक्चर देती थी. पर क्लास रूम के बाहर पेड़ के नीचे अलग मज़ा था. वहाँ मेरी किसी से पहचान भी हुई, उसी के बारे में बताना चाहती हूँ :-


जब भी याद करूँ, परीक्षा
एक गिलहरी आ जाती याद !
फुदक फुदक कर लाती कही से
एक मूंगफली अपने साथ !!

हाय परीक्षा आती जब सर पे
दूर कोई ठोर हम ढूँढा करते !
हर कोई दिखता पढता,
हॉस्टल कैम्पस के पेड़ों के तले !!

वहीँ दिखती थी एक गिलहरी
बड़ी शाख से उतरती हुई !
पहले दिन तो डरी डरी सी
समझे मुझको कोई प्रहरी !!

कुछ दिन मुझ पर नज़र रखी,
हर हरकत लेती पहचान !
लेकिन कुछ ही दिन में देखो,
नहीं रही मुझसे अनजान !!

तुरत फुरत, पर संभल संभल के,
रोज़ निकलती कोटर से !
मुझको देखे टुकर टुकर वो,
अपने दो नन्हे नैनो से !!

इधर उधर, आस पास ही,
लगी खोजने अपना भोजन !
नन्हे नन्हे पैरों से अपने,
चलती होगी बस "इक योजन" !!

एक मूंगफली मिली कही से,
रंग लायी उसकी मेहनत !
सूंघे उसको अलट पलट कर,
मिटाने को अपना हर शक  !!

लेकर अपने दो पंजो में,
बैठ गयी वो पूंछ पसार !
नन्हे जीव कि समझ तो देखो,
कैसे ग्रहण किया आहार !!

सबसे पहले कुतर कुतर कर,
उसने दिया छिलके को उतार !
उस में से निकले दाने दो (२),
लेकिन देखो संतोष अपार !!

ये नन्ही सी जान को देखो,
समझदार भी, नटखट भी !
याद आये मुझको वो तब तब
हो परीक्षा  के दिन या
दिखे मूंगफली मुझे कभी !!

. . . . . . .नवनीत गोस्वामी

शनिवार, जुलाई 24, 2010

भीगे तन - मन


ओ कारे कारे बदरा
अब तो अपनी छटा बिखरा,
झूम झूम बरसो ऐसे.
बरसा कभी ना हो जैसे !

बरसाओ तुम मेह मेह
हम जीवो पे स्नेह स्नेह
चारों और भये हरियाली
भीगे हर पत्ता, हर डाली !

हिल उठे वृक्षों के पत्ते,
हवा ने ली  कैसी अंगराई,
मंडराए बादल नभ में ,
मद मस्त चली ऐसी पुरवाई!

रुत बदली एक ही दिन में,
अब चहके मोर उपवन में !
कल गर्मी रुला रही थी,
गर्म हवा तन जला रही थी,
पल में बदला सारा ये नज़ारा,
नभ से गिरा पानी का फवारा !

"नवनीत" ने देखा ये आलम,
रोक सकी ना अपना मन,
चले भीगने हम तो बाहर,
अमृत बरसाए नील गगन !

बरसाओ जलद वारि बारी !
तेरी हर कनी लगे प्यारी,
शीतल करदो, जल से भरदो,
तालाब, सरिता, उपवन, क्यारी !

मन बांवरा ले हिचकोले,
तेरी बोछारों संग ऐसे डोले,
ज्यों मन्दाकिनी (गंगा ) मस्त बहे,
कूह कूह गाए वनप्रिया (कोयल) जैसे !

इतनी  प्यारी लगे मुझे,
कैसे करूँ इसका वर्णन
श्रावण  की पहली बारिश में,
भीगे तन - मन, भीगे तन - मन !