ये कविता हास्य कवि श्री शैलेश लोढा जी द्वारा रचित है ! गए दिनों मैंने इसे "Comedy ka Mahamuqabala " में सुना और मुझे बहुत अच्छी लगी !
((*_*)) बेटी ((*_*))
क्या लिखूं उसे ?
वो परियों का रूप होती है ?
या कड़कती ठंड में सुहानी धूप होती है ?
क्या लिखूं उसे ?
वो होती है चिड़ियों की चहचाहट की तरह !
या वो निश्छल खिलखिलाहट की तरह ?
वो होती है उदासी में हर मर्ज़ की दवा की तरह ,
या होती है उमस में शीतल हवा की तरह ?
क्या लिखूं उसे . . . ?
वो आँगन में फैला उजाला है '
या मेरे गुस्से पे लगा ताला है ?
वो पहाड़ पे सूरज की किरण है '
वो ज़िन्दगी सही जीने का आचरण है !
है वो ताक़त जो छोटे से घर को महल कर दे;
या वो काफिया जो किसी ग़ज़ल को मुक़म्मल कर दे ?
क्या लिखू उसे. . . ?
वो अक्षर, जो न हो तो वर्णमाला अधूरी है;
या वो जो सबसे ज्यादा ज़रूरी है :
ये नहीं कहूँगा कि वो सांस सांस होती है ;
क्यूंकि बेटिया तो सिर्फ एहसास होती है !
उसकी आँखे ना मुझसे गुडिया मांगती है ना खिलौना ;
"कब आओगे " बस इतना सा सवाल है मुझसे पूछना !
"जल्दी आऊंगा" अपनी मजबूरी को छिपाते हुए देता हूँ जवाब ;
"Date बताओ " time बताओ"
अपनी उँगलियों पे करती है हिसाब !
जब नहीं दे पाता हूँ उसे जवाब ;
तो अपने चेहरे पे ढक लेती है किताब !
ऑस्ट्रेलिया में छुट्टिया ; 5 स्टार में खाना या
नए नए i -pod नहीं मांगती है !
ना ढेर सारे पैसे अपने पिगी बैंक में उडेलना चाहती है
बस वो मेरे साथ कुछ देर खेलना चाहती है
बस वो मेरे साथ कुछ देर खेलना चाहती है ! ! !
आखरी पंक्तिया :-
कि वही बेटा ! काम है ! ज़रूरी है ;
नहीं करूँगा तो कैसे चलेगा ! मजबूरी है !
दुनियादारी से भरे जवाब उसे देने लगता हूँ !;
वो झूठा ही सही; मुझे एहसास दिलाती है , जैसे सब समझ गयी हो !
पर मुंह छुपा के रोती है ,
ज़िन्दगी ना जाने क्यूँ ऐसे उलझ जाती है ;
और हम समझते है , बेटियां सब समझ जाती है !!!!!!
. . . . .. . . . द्वारा : - शैलेश लोढा