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सोमवार, अगस्त 01, 2011

बेटियां . . Poem By Shailesh Loadha

ये कविता हास्य कवि श्री शैलेश लोढा जी द्वारा रचित है ! गए दिनों मैंने इसे "Comedy ka  Mahamuqabala " में सुना और मुझे बहुत अच्छी लगी !

((*_*))   बेटी  ((*_*))

क्या लिखूं उसे ?
वो परियों का रूप होती है ?
या कड़कती ठंड में सुहानी धूप होती है ?

क्या लिखूं उसे ?
वो होती है चिड़ियों की चहचाहट की तरह !
या वो निश्छल खिलखिलाहट की तरह ?
वो होती है उदासी में हर मर्ज़ की दवा की तरह ,
या होती है उमस में शीतल हवा की तरह ?

क्या लिखूं उसे . . . ?
वो आँगन  में फैला उजाला है '
या मेरे गुस्से पे लगा ताला  है ?
वो पहाड़ पे सूरज की किरण है '
वो ज़िन्दगी सही जीने का आचरण है !
है वो ताक़त जो छोटे से घर को महल कर दे;
या वो काफिया जो किसी ग़ज़ल को मुक़म्मल कर दे ?

क्या लिखू  उसे. . . ?
वो अक्षर, जो न हो तो वर्णमाला अधूरी है;
या वो जो सबसे ज्यादा ज़रूरी है :
ये नहीं कहूँगा कि वो सांस सांस होती है ;
क्यूंकि बेटिया तो सिर्फ एहसास होती है !

उसकी आँखे ना मुझसे गुडिया मांगती है ना खिलौना ;
"कब आओगे " बस इतना सा सवाल है मुझसे पूछना !
"जल्दी आऊंगा"  अपनी मजबूरी को छिपाते हुए देता हूँ जवाब ;
"Date बताओ " time बताओ"
अपनी उँगलियों पे करती है हिसाब !

जब नहीं दे पाता हूँ उसे जवाब ;
तो अपने चेहरे पे ढक लेती है किताब !

ऑस्ट्रेलिया में छुट्टिया ; 5 स्टार में खाना या
नए नए i -pod  नहीं मांगती है !
ना ढेर सारे पैसे अपने पिगी बैंक में उडेलना चाहती है
बस वो मेरे साथ कुछ देर खेलना चाहती है
बस वो मेरे साथ कुछ देर खेलना चाहती है ! ! !

आखरी पंक्तिया :-
कि वही बेटा ! काम है ! ज़रूरी है ;
नहीं करूँगा तो कैसे चलेगा ! मजबूरी है !
दुनियादारी से भरे जवाब उसे देने लगता हूँ !;
वो झूठा ही सही; मुझे एहसास दिलाती है , जैसे सब समझ गयी हो !
पर मुंह छुपा के रोती है ,
ज़िन्दगी ना जाने क्यूँ ऐसे उलझ जाती है ;
और हम समझते है , बेटियां सब समझ जाती है !!!!!!

     . . . . .. . . . द्वारा : - शैलेश लोढा

9 टिप्‍पणियां:

  1. Aap ke is kavita ko padh kar sari soch hi badal gaya sir you are great poet love very y

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  2. क्या लिखूं आप के बारे में
    में एक द्विप हु तो
    आप आस पास का पूरा समंदर है
    मेरी छोटी सी जिंदगी के आप बोहोत बड़े चमकते सितारे हैं
    आप कवि ना होते तो क्या होता येतो पता नही
    लेकिन मेरे सर पर ये आसमान ना होता
    जिंदगी होती तो भी इसी होती जैसे
    सकर के बिना चाय होती

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  3. आप सभी का शुक्रिया ! सच में शैलेश लोढ़ा जी की यह कविता दिल को छू जाने वाली है।

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