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शनिवार, जुलाई 24, 2010

भीगे तन - मन


ओ कारे कारे बदरा
अब तो अपनी छटा बिखरा,
झूम झूम बरसो ऐसे.
बरसा कभी ना हो जैसे !

बरसाओ तुम मेह मेह
हम जीवो पे स्नेह स्नेह
चारों और भये हरियाली
भीगे हर पत्ता, हर डाली !

हिल उठे वृक्षों के पत्ते,
हवा ने ली  कैसी अंगराई,
मंडराए बादल नभ में ,
मद मस्त चली ऐसी पुरवाई!

रुत बदली एक ही दिन में,
अब चहके मोर उपवन में !
कल गर्मी रुला रही थी,
गर्म हवा तन जला रही थी,
पल में बदला सारा ये नज़ारा,
नभ से गिरा पानी का फवारा !

"नवनीत" ने देखा ये आलम,
रोक सकी ना अपना मन,
चले भीगने हम तो बाहर,
अमृत बरसाए नील गगन !

बरसाओ जलद वारि बारी !
तेरी हर कनी लगे प्यारी,
शीतल करदो, जल से भरदो,
तालाब, सरिता, उपवन, क्यारी !

मन बांवरा ले हिचकोले,
तेरी बोछारों संग ऐसे डोले,
ज्यों मन्दाकिनी (गंगा ) मस्त बहे,
कूह कूह गाए वनप्रिया (कोयल) जैसे !

इतनी  प्यारी लगे मुझे,
कैसे करूँ इसका वर्णन
श्रावण  की पहली बारिश में,
भीगे तन - मन, भीगे तन - मन !

4 टिप्‍पणियां:

  1. बरसाओ जलद वारि बारी !
    तेरी हर कनी लगे प्यारी,
    शीतल करदो, जल से भरदो,
    तालाब, सरिता, उपवन, क्यारी

    वाह वा...बारिश पर लिखी एक अप्रतिम रचना...शब्दों में प्रशंशा करना संभव नहीं...

    नीरज

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